मनीष कुमार, डॉ. टी.आर. शर्मा
मनमोहन भूरिया, दिनेश कुमार कुलदीप
पुष्पा कोर्चे, सुशील यादव
उद्यान विभाग, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर (एम.पी.)
एग्रोनोमी विभाग, आईटीएम यूनिवर्सिटी , ग्वालियर,(म. प्र.)
परिचय
आजकल नींबू वर्गीय फलों पर इनके, शरीर को ऊर्जादायक एवं औषधीय प्रभाव वाले गुणों के कारण विशेष महत्त्व दिया जाता है। ये विटामिन “सी” का मुख्य स्त्रोत होते हैं साथ ही शर्करा, अमीनो अम्ल एवं अन्य पोषक तत्वों का भी मुख्य स्त्रोत है। नींबू वर्गीय फलों की खेती में उत्पादन की दृष्टि से भारत का स्थान तीसरा है। नींबू स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होने के साथ-साथ व्यावसायिक रूप से भी लाभकारी है। इससे विभिन्न उत्पाद जैसे – अचार, नींबू का कार्डियल, साइट्रिक अम्ल के रूप में, पूजा में उपयोग होना आदि आर्थिक रूप से लाभ पहुँचता है। नींबू वर्गीय फलों में संतरे, नींबू व मौसमी आदि का महत्वपूर्ण स्थान हैं। इनमें लगने वाले रोग अनेक करक जीवों जैसे- कवक, जीवाणु, विषाणु समकक्ष जीव, सूत्रकृमि द्वारा विभिन्न प्रकार की रोग व्याधियां उत्पन्न होती है। भारत में नींबू वर्गीय फसलों के प्रमुख रोग एवं उनके रोकथाम आगे वर्णित हैं जो इस प्रकार हैं –
1.नींबू का आर्द्रगलन रोग : सामान्यतः यह रोग नींबू में नर्सरी पौधों को हानि पहुंचता है। जिन स्थानों पर नमी की अधिकता या जल निकास का उचित प्रबंध नहीं होता वहाँ यह सामान्य रोग है। यह रोग पायथियम, फायटोप्थोरा एवं राइजोक्टोनिया नमक कवक के द्वारा होता है। पौध शाला में ही तरुण पौधे भूमि सतह के पास गलकर गिरने लगते हैं व मर जाते हैं।
रोग का प्रबंधन
1. सर्वप्रथम मिट्टी को निर्जर्मीकरण के लिए एक भाग फॉर्मलीन को 50 भाग पानी में मिलाकर नर्सरी की मिट्टी को 4 इंच तक गीला कर देते हैं, साथ ही बोर्डो मिश्रण 5 : 5 : 50 के अनुपात में फायटोलान 0.2%, पेरिनॉक्स 0.5%, कैप्टॉन 0.2% आदि कवकनाशी को मिलाने से इस बीमारी की सम्भावना कम होती है। नर्सरी में उचित कवकनाशियों द्वारा भूमि का उपचार करना चाहिए।
2. डाई बैक / एन्थ्रक्नोज / विदर-टिप : यह कोलेटोट्राइकम ग्लोईयोस्पोरोइड्स नामक कवक द्वारा उत्पन्न होने वाला रोग है। यह रोग शाखाओं को प्रभावित करता है। सामान्यतः रोगग्रस्त शाखाएं ऊपर से लेकर नीचे की ओर सूखने लगती हैं। पत्तियां पीली होकर गिरने लगतीं हैं व तने पर गोंद बनता जाता है। अंततः पूरा पौधा सूख जाता है।
रोग का प्रबंधन
1.सबसे पहले सूखी हुई शाखाओं को काट देना चाहिए और शिरों पर कॉपर युक्त कवकनाशी या बोर्डो मिश्रण का लेप कर देना चाहिए।
2. यूरिया खाद का 100 ग्राम /10 ली पानी में घोल बनाकर पौधों में छिड़कना चाहिए जिससे पौधों में ओज बढे।
3. संक्रमित पौधों पर 0.1% कार्बेन्डाजिम या 0.2% कैप्टाफॉल घोल का तीन बार छिड़काव करना चाहिए।
4. ज़िंक सल्फेट, कॉपर सल्फेट, एवं चूने का मिश्रण 0.6 : 0.2 : 0.5 किलोग्राम 100 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।
3. चूर्णिल आसिता रोग : चूर्णिल आसिता एक कवक जनित रोग है। यह नींबू वर्गीय लगभग सभी फसलों में देखने को मिलती हैं। यह एक्रोस्पोरियम टिन्जिटैनियम कवक द्वारा होता है। इस रोग में पत्तियों की ऊपरी सतह पर सफ़ेद चूर्ण के सामान कवक की वृद्धि के धब्बे दिखाई देते हैं जो बढ़कर पूरी पत्तियों को ढक लेते हैं । ये पत्तियां पीली होकर मुड़ जाती हैं और परिपक्व होने के पहले ही झड़ जाती हैं। संक्रमण अधिक होने पर छोटे फलों पर भी कवक की वृद्धि हो जाती है व पकने से पहले ही झड़ जाते हैं।
रोग का प्रबंधन
1. इस रोग में सल्फर महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सुबह के समय 20 किलोग्राम/ है. की दर से सल्फर का छिड़काव करने से इस रोग का प्रभावशाली नियंत्रण होता है।
2. घुलनशील सल्फर 0.2 %और ट्राईडेमोर्फ़ 0.1% या कार्बेन्डाजिम 0.05% का 20 दिन के अंतराल में 3 बार छिड़काव करना चाहिए।
3. 15 दिन के अंतराल पर कैलेक्सीन 0.2 – 0.3% का छिड़काव प्रभावशाली होता है। गंभीर समस्या होने पर पौधे के प्रभावी भाग को तोड़कर अलग कर देना चाहिए व नष्ट कर देना चाहिए।
4. नीम्बू वर्गीय फसलों का गमोसिस रोग : यह रोग प्रायः अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में फायटोप्थोरा नमक कवक के द्वारा होता है। कवक पत्तियों पर झुलसा रोग जैसे लक्षण उत्पन्न करता है। प्रभावित पौधों की छाल से गोंद का स्त्राव होता है जिससे छाल पर भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं व कठोर हो चुके ढेर सरे गोंद के साथ दिखाई देते हैं। प्रभावित पेड़ की जड़ के पास मिट्टी हटाने से जल – पार भाषाक, श्लेष्मी एवं लालिमा युक्त भूरे काले रंग की छाल दिखाई देती है। संक्रमण गंभीर होने पर अंततः पेड़ मर जाता है।
रोग का प्रबंधन
1. गमोसिस के नियंत्रण के लिए रोगग्रसित छाल को खुरचकर निकल देना चाहिए एवं मेटालेक्जाइल एम. जेड. -72 की लेई लगनी चाहिए।
2. रोग प्रतिरोधी रूटस्टॉक जैसे सॉर ऑरेंज का उपयोग करना चाहिए।
3. रिडोमिल एम.जेड. -72 (2.75 ग्राम / ली पानी के साथ) के छिड़काव के साथ साथ पूरे पौधे एवं थाले को आच्छादित करते हुए ड्रेंचिंग करना चाहिए। यह प्रक्रिया 40 दिन के अंतराल पर दोबारा करना चाहिए।
4. पौधों की रोपाई वाले गड्ढों में जिंक सल्फेट, कॉपर सल्फेट,एवं बिना बुझे चूने का 5 : 1 : 4 के अनुपात में रोपाई के पहले प्रयोग करना चाहिए। पौधों को घाव लगने से बचाना चाहिए।
5. साल में एक बार बोर्डो पेस्ट से 50 – 75 सेमी ऊंचाई तक रंग देना चाहिए।
5. नीबू का कैंकर या सिट्रस कैंकर रोग : यह वर्षा ऋतु में होने वाला गंभीर रोग है जो जैंथोमोनस कॉम्पेस्ट्रिस पैथोवार सिट्री नमक जीवाणु से होता है। यह प्रायः सभी नीम्बू वर्गीय फसलों को ग्रसित करता है। इस रोग के लक्षण मुख्यतः पत्तियों, शाखाओं, फलों, एवं डंठलों पर दिखाई देते हैं । शुरूआती दिनों में लक्षण पीले धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं जो निरंतर बढ़ते हुए कठोर, उभरे हुए भूरे रंग के छालों में बदल जाते हैं। ये छाले फलों के छिलके तक ही सीमित होते हैं परन्तु फलों का बाजार मूल्य काफी गिर जाता है जिससे किसानों को आर्थिक हानि अधिक होती है।
रोग का प्रबंधन
1. मानसून आने के पहले ही रोग ग्रसित टहनियों एवं शाखाओं को काट छांट करके जला देना चाहिए और कटे हुए शिरों पर बोर्डो मिश्रण लेप कर देना चाहिए।
2. नीम की खली 1 किलोग्राम 20 लीटर पानी में घोल बनाकर अक्टूबर एवं दिसम्बर में छिड़काव करना चाहिए।
3. स्ट्रेप्टोसाइक्लिन 100 पी.पी.एम. (10 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन + 5 ग्राम कॉपर सल्फेट 100 लीटर पानी में मिला कर) का छिड़काव फरवरी, अक्टूबर और दिसम्बर में करना चाहिए।
4. मेंकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करने से रोग का प्रभावी रूप से नियंत्रण होता है।
5. नींबू वर्गीय फलों का शुष्क जड़ गलन रोग : शुष्क जड़ गलन रोग प्रायः फ्यूजेरियम, मैक्रोफोइना तथा डिप्लोडिया नमक कवकों की प्रजाति से होता है। इस रोग में मुख्यतः बड़े जड़ों वाली छाल जमीन की सतह के नीचे गलना प्रारम्भ हो जाती है तथा बहुत बुरी दुर्गन्ध आती है। प्रारम्भ में यह हरे रंग की होकर नम हो जाती है। बाद में छाल टूटकर अलग हो जाती व सूख जाती है। जड़ों के गलने के कारण पत्तियां पीली होकर झड़ने लगती हैं एवं फलों का आकार सामान्यतः छोटा रहता है, जिससे बाजार भाव प्रभावित होता है।
रोग का प्रबंधन
1. थालों को कार्बेन्डाजिम 0.1% से उपचारित करने के बाद मेंकोजेब 0.25% या क्लोरोथेलोनिल 0.2% के घोल को सिंचाई के 12 से 24 घंटे बाद ड्रेंचिंग करने से रोग का प्रभावी नियंत्रण होता है।
2. पत्तियों पर यूरिया का छिड़काव करना चाहिए जिससे पौधे रोगमुक्त होते हैं ।
3. उचित खाद मुख्यतः नाइट्रोजन तथा सिंचाई की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
6. नींबू का हरितमा रोग : यह एक जीवाणु जनित रोग है जो नींबू वर्गीय पौधों में अत्यंत भयानक होता है। यह रोग ग्राफ्टिंग एवं सिट्रस सिल्ला (डेफोरिना सिट्री) के द्वारा फैलता है। इस रोग में पत्तियों का छोटा रह जाना, घनी पत्तियां न आना शाखाओं में डाइबैक रोग, हरे एवं मूलयहीन फलों की उपज आदि मुख्य लक्षण हैं। रोग ग्रसित पौधों के फल अधिकांशतः पकने पर भी हरे होते हैं तथा उनको सूर्य के प्रकाश के विपरीत देखने पर स्पष्ट रूप से छिलकों पर पीला धब्बा दिखाई देता है। रोगी पौधों के फल छोटे, विकृत आकार के व स्वाद में अरोचक तथा कम जूस के होते हैं जो मूल्यहीन होते हैं।
रोग का प्रबंधन
1. यह रोग ग्राफ्टिंग से फैलता है अतः ग्राफ्टिंग सामग्री रोगमुक्त हो इसका विशेष ध्यान होना चाहिए ।
2. रोग वाहक कीट सिट्रस सिल्ला का नियंत्रण फोस्फोमिडॉन या पैराथीओन 0.025 % का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। ये कीटनाशी शिशु एवं व्यस्क दोनों अवस्थाओं को नियंत्रित करते हैं।
3. दानेदार डाइमेथोएट 10% का छिड़काव थालों के चारों ओर करने से सिट्रस सिल्ला का नियंत्रण अच्छा होता है।
7. सिट्रस ट्रिसटेजा : यह रोग सिट्रस एफिड या नींबू के माहू (टोक्सोप्टेरा सिट्रिसिडा) से फैलता है। शाखाओं में डाइबैक रोग हो जाता है । रोग के लक्षण बढ़ने पर पत्तियों में हरिमहीनता व धब्बे बनते हैं। जड़ों की छालें भंगुर हो जाती हैं व मरने लगती हैं। पार्श्व जड़ें शुष्क गलन रोग के लक्षण दिखाते हैं। कुछ वर्षों में ही रोगी पौधे पूरी तरह सूख जाते हैं और पौधा विल्ट रोग से ग्रसित दिखाई देता है। कुछ पौधे 2 -3 दिन में पूरी तरह सूख जाते है इसलिए इसे क्विक डिक्लाइन या शीघ्र डिक्लाइन भी कहा जाता है।
रोग का प्रबंधन
1. नर्सरी एवं बागों में सिट्रस एफिड के नियंत्रण के लिए कीटनाशक जैसे मोनोक्रोटोफॉस 0.05%, इमिडेक्लोप्रिड 0.004% का छिड़काव करने से रोग का नियंत्रण होता है।
2. रोग प्रतिरोधी रूटस्टॉक जैसे रफ लेमन, रंगपुर लाइम, ट्राईफोलिएट ऑरेंज आदि का प्रवर्धन के लिए उपयोग करना चाहिए।
3. न्यूसेलर सीडलिंग्स विषाणु से मुक्त होते हैं अतः बाग़ लगाने के लिए इनका प्रयोग करना चाहिए।
4. अच्छी जल निकास वाली व उर्वरता बढ़ाने से रोग को काम किया जा सकता है ।
5. स्वस्थ एवं प्रमाणित बड – वुड का प्रयोग करना चाहिए।