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कालमेघ (चिरायता) की खेती किसानों को आत्मनिर्भर बना सकती है, जानिए कैसे करें

कालमेघ एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है। इसे कडू चिरायता व भुईनीम के नाम से जाना जाता है। यह एकेन्थेसी कुल का सदस्य है, यह हिमालय में उगने वाली वनस्पति चिरायता के समान होता है। कालमेघ शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों के वनों में प्राकृतिक रूप में पाया जाता है, यह एक शाकीय पौधा है। इसकी ऊँचाई 1 से 3 फीट होता है। इसके पुष्प छोटे श्वेत रंग या कुछ बैगनी रंगयुक्त होते हैं।
उपयोगिता: इसका उपयोग अनेकों आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक और एलोपैथिक दवाईयों के निर्माण में किया जाता है। यह यकृत विकारों को दूर करने एवं मलेरिया रोग के निदान हेतु एक महत्वपूर्ण औषधी के रूप में उपयोग होता है। खून साफ करने, जीर्ण ज्वर एवं विभिन्न चर्म रोगों को दूर करने में इसका उपयोग किया जाता है।

बुवाई का समय: बीजों की बुवाई जून के अंतिम सप्ताह या जुलाई के प्रथम सप्ताह में की जाती है।

बीज की मात्रा: बीज दर 160 ग्राम/एकड़ सीध/नर्सरी में बोई जाती है। बुवाई का तरीका: कालमेघ के बीज को छिड़काव विधि द्वारा या लाइन में बोया जा सकता है।

बीज उपचार: बीज को बुवाई से पहले पांच मिनट के लिए गर्म पानी में भिगोया जाना चाहिए। पानी का तापमान पांच मिनट के लिए लगभग 50डिग्री सेल्सियस होना चाहिए।

खाद एवं रासायनिक उर्वरक: खेत की आखरी जुताई के पहले 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की पक्की खाद मिला देना चाहिए। बोनी व रोपण से पूर्व खेत में 30 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 30 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर डालकर जुताई करनी चाहिए। कालमेघ की खेती सीधे बीज की बुआई कर या रोपणी में पौधे तैयार कर की जा सकती है।

खरपतवार नियंत्रण
कालमेघ की फसल में खरपतवार की रोकथाम के लिए 2-3 बार निराई – गुड़ाई की आवश्यकता होती है।

फसल की अवधि
अंकुर अलग-अलग महीनों (जुलाई से नवंबर) में लगाए गए थे और 120 डीएपी पर कटाई की गई, और बाद में दो महीने के अंतराल पर दो रतन, रोपण के 180 और 240 दिन बाद कटाई की जाती है।

कटाई का समय
कालमेघ की 2 से 3 कटाईयां ली जा सकती है, अनुसंधानों से यह ज्ञात हुआ है कि इसमें एंड्रोग्राफ़ोलाइड (कड़वे पदाथज़्) पुष्प आने के बाद ही अधिक मात्रा में पाया जाता हैं। पहली कटाई जब फूल लगना प्रारम्भ हो जाएँ, तब करना चाहिए। इसे जमीन से 10 से 15 से.मी. ऊपर से काटना चाहिए। काटने के बाद खेत में 30 कि.ग्रा. नाईट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए। खेत में निदाई-गुडाई पहली बार करें, तब भी 30 कि.ग्रा. नाईट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए। तीसरी बार सम्पूर्ण पौधा बीज पकने पर उखाडऩा चाहिए।

उत्पादन क्षमता
बीज के लिए फरवरी-मार्च में कटाई की जाती है। प्रति हेक्टेयर औसतन 300-400 शाकीय हरा भाग (40-60 किग्रा. सूखा शाकीय भाग) प्रति हेक्टे. मिल जाती है। मानसून के मौसम में उगाई जाने वाली एक अच्छी फसल, प्रति हेक्टे. क्षेत्र में 3.5 से 4.0 टन सूखे सामग्री की पैदावार देती है।

कालमेघ (चिरायता) की खेती किसानों को आत्मनिर्भर बना सकती है, जानिए कैसे करें

कालमेघ एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है। इसे कडू चिरायता व भुईनीम के नाम से जाना जाता है। यह एकेन्थेसी कुल का सदस्य है, यह हिमालय में उगने वाली वनस्पति चिरायता के समान होता है। कालमेघ शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों के वनों में प्राकृतिक रूप में पाया जाता है, यह एक शाकीय पौधा है। इसकी ऊँचाई 1 से 3 फीट होता है। इसके पुष्प छोटे श्वेत रंग या कुछ बैगनी रंगयुक्त होते हैं।
उपयोगिता: इसका उपयोग अनेकों आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक और एलोपैथिक दवाईयों के निर्माण में किया जाता है। यह यकृत विकारों को दूर करने एवं मलेरिया रोग के निदान हेतु एक महत्वपूर्ण औषधी के रूप में उपयोग होता है। खून साफ करने, जीर्ण ज्वर एवं विभिन्न चर्म रोगों को दूर करने में इसका उपयोग किया जाता है।

बुवाई का समय: बीजों की बुवाई जून के अंतिम सप्ताह या जुलाई के प्रथम सप्ताह में की जाती है।

बीज की मात्रा: बीज दर 160 ग्राम/एकड़ सीध/नर्सरी में बोई जाती है। बुवाई का तरीका: कालमेघ के बीज को छिड़काव विधि द्वारा या लाइन में बोया जा सकता है।

बीज उपचार: बीज को बुवाई से पहले पांच मिनट के लिए गर्म पानी में भिगोया जाना चाहिए। पानी का तापमान पांच मिनट के लिए लगभग 50डिग्री सेल्सियस होना चाहिए।

खाद एवं रासायनिक उर्वरक: खेत की आखरी जुताई के पहले 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की पक्की खाद मिला देना चाहिए। बोनी व रोपण से पूर्व खेत में 30 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 30 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर डालकर जुताई करनी चाहिए। कालमेघ की खेती सीधे बीज की बुआई कर या रोपणी में पौधे तैयार कर की जा सकती है।

खरपतवार नियंत्रण
कालमेघ की फसल में खरपतवार की रोकथाम के लिए 2-3 बार निराई – गुड़ाई की आवश्यकता होती है।

फसल की अवधि
अंकुर अलग-अलग महीनों (जुलाई से नवंबर) में लगाए गए थे और 120 डीएपी पर कटाई की गई, और बाद में दो महीने के अंतराल पर दो रतन, रोपण के 180 और 240 दिन बाद कटाई की जाती है।

कटाई का समय
कालमेघ की 2 से 3 कटाईयां ली जा सकती है, अनुसंधानों से यह ज्ञात हुआ है कि इसमें एंड्रोग्राफ़ोलाइड (कड़वे पदाथज़्) पुष्प आने के बाद ही अधिक मात्रा में पाया जाता हैं। पहली कटाई जब फूल लगना प्रारम्भ हो जाएँ, तब करना चाहिए। इसे जमीन से 10 से 15 से.मी. ऊपर से काटना चाहिए। काटने के बाद खेत में 30 कि.ग्रा. नाईट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए। खेत में निदाई-गुडाई पहली बार करें, तब भी 30 कि.ग्रा. नाईट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से डालना चाहिए। तीसरी बार सम्पूर्ण पौधा बीज पकने पर उखाडऩा चाहिए।

उत्पादन क्षमता
बीज के लिए फरवरी-मार्च में कटाई की जाती है। प्रति हेक्टेयर औसतन 300-400 शाकीय हरा भाग (40-60 किग्रा. सूखा शाकीय भाग) प्रति हेक्टे. मिल जाती है। मानसून के मौसम में उगाई जाने वाली एक अच्छी फसल, प्रति हेक्टे. क्षेत्र में 3.5 से 4.0 टन सूखे सामग्री की पैदावार देती है।

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