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देसी जुगाड़, आधी यूरिया में पूरा काम, फसल में मिलेगी अच्छी उपज, जानिए कैसे

एक अनुभवी किसान भूपिंदर सिंह बाजवा ने खेती में एक क्रांतिकारी ‘देसी जुगाड़’ खोजा है। उन्होंने यूरिया की भारी लागत और बर्बादी को रोकने के लिए एक ‘सीक्रेट घोल’ तैयार किया। इससे यूरिया हवा में नहीं उड़ता और न ही पानी में बहता है। नतीजा यह हुआ कि अब खेत में आधी यूरिया डालने पर भी फसल को पूरा पोषण मिलता है, पैदावार बंपर होती है साथ ही मिट्टी की सेहत भी सुधरती है।

देसी घोल का बडा कमाल

नैनीताल के बाज़पुर गांव के प्रगतिशील किसान भूपिंदर सिंह बाजवा अपने खेतों में वर्मी कम्पोस्ट का प्रयोग करते थे। काफी दिनों की सोच के बाद उन्होंने वर्मीकंपोस्ट में यूरिया की ताकत मिलाने का विचार किया और एक ऐसा घोल बनाया, जिससे यूरिया की नाइट्रोजन को अगर किसी चीज से ‘पकड़’ लिया जाए, तो वह उड़ेगी भी नहीं और बहेगी भी नहीं। यह काम केंचुआ खाद में मौजूद करोड़ों ‘लाभदायक जीवाणु’ और जैविक कार्बन बखूबी कर सकते थे। बाजवा का यह तरीका बेहद सरल और असरदार है, जिसे कोई भी किसान आसानी से अपना सकता है।

क्या करना होगा

इसके लिए बस 1 किलो यूरिया को 4 से 5 लीटर केंचुआ खाद के गाढ़े घोल में अच्छी तरह मिलाकर 2 से 3 दिनों के लिए छांव में रख देना होता है। असली ‘चमत्कार’ इसी दौरान होता है, जब खाद में मौजूद करोड़ों सूक्ष्म जीवाणु यूरिया की नाइट्रोजन को सोखकर उसे अपने साथ ‘बांध’ लेते हैं। आसान शब्दों में समझें तो यह प्रक्रिया यूरिया पर एक ‘जैविक कोटिंग’ चढ़ा देती है, जिससे यूरिया हवा में उड़कर या पानी में बहकर बर्बाद नहीं होता, बल्कि एक ‘स्लो-रिलीज़’ खाद बनकर फसल को धीरे-धीरे और पूरा पोषण देता है।

आधी यूरिया में पूरा काम

जब बाजवा ने इस तैयार घोल को सिंचाई के पानी के साथ या स्प्रे करके अपनी फसलों अनाज, सब्ज़ियां और नकदी फसलों में इस्तेमाल किया, तो परिणाम चौकाने वाले थे। जहां पहले 100 किलो यूरिया लगता था, वहां अब इस ‘पॉवर-घोल’ के कारण 50 किलो यूरिया में ही काम हो गया। क्योंकि अब 90 फीसदी से ज़्यादा नाइट्रोजन सीधे पौधे को मिल रही थी, बर्बादी लगभग शून्य हो गई थी। यूरिया की खपत आधी होने से खेती की लागत में सीधी बचत हुई, जिससे मुनाफा बढ़ा। पौधों को नाइट्रोजन ‘अचानक’ मिलने की बजाय, ‘धीरे-धीरे’ और ‘लगातार’ चलती रही। इससे पौधे ज़्यादा स्वस्थ हुए, उनमें हरापन बढ़ा और पैदावार में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ। यह इस प्रयोग का सबसे बड़ा फायदा था। केमिकल यूरिया मिट्टी के जीवाणुओं को मारता है, लेकिन यह ‘जैविक-यूरिया’ का घोल मिट्टी में करोड़ों नए जीवाणुओं को ‘जन्म’ दे रहा था। मिट्टी फिर से ‘ज़िंदा’ होने लगी। वह नरम, भुरभुरी और उपजाऊ बनने लगी। केंचुओं की संख्या बढ़ने लगी।

कम होगी यूरिया की खपत बढेगा उत्पादन

एस। भूपिंदर सिंह बाजवा का यह साधारण सा दिखने वाला प्रयोग, असल में ‘एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन’ और ‘पर्यावरण-अनुकूल खेती’ का एक बेहतरीन उदाहरण है। यह प्रयोग सिर्फ बाज़पुर या उत्तराखंड तक सीमित नहीं है। भारत का कोई भी किसान, चाहे वह गेहूं-धान उगाता हो, सब्ज़ियां लगाता हो, या बागवानी करता हो, इस तकनीक को अपना सकता है। यह ‘कम लागत में बंपर उत्पादन’ का सच्चा मॉडल है। हालांकि इस तकनीक पर अभी और वैज्ञानिक परीक्षण जैसे कि मिट्टी पर इसके दीर्घकालिक प्रभाव, नाइट्रोजन उपयोग दक्षता पर सटीक आंकड़े, आदि की जरूरत है, लेकिन बाजवा के 35 साल के अनुभव ने जो रास्ता दिखाया है, वह भारतीय कृषि के लिए ‘मील का पत्थर’ साबित हो सकता है।

देसी जुगाड़, आधी यूरिया में पूरा काम, फसल में मिलेगी अच्छी उपज, जानिए कैसे

एक अनुभवी किसान भूपिंदर सिंह बाजवा ने खेती में एक क्रांतिकारी ‘देसी जुगाड़’ खोजा है। उन्होंने यूरिया की भारी लागत और बर्बादी को रोकने के लिए एक ‘सीक्रेट घोल’ तैयार किया। इससे यूरिया हवा में नहीं उड़ता और न ही पानी में बहता है। नतीजा यह हुआ कि अब खेत में आधी यूरिया डालने पर भी फसल को पूरा पोषण मिलता है, पैदावार बंपर होती है साथ ही मिट्टी की सेहत भी सुधरती है।

देसी घोल का बडा कमाल

नैनीताल के बाज़पुर गांव के प्रगतिशील किसान भूपिंदर सिंह बाजवा अपने खेतों में वर्मी कम्पोस्ट का प्रयोग करते थे। काफी दिनों की सोच के बाद उन्होंने वर्मीकंपोस्ट में यूरिया की ताकत मिलाने का विचार किया और एक ऐसा घोल बनाया, जिससे यूरिया की नाइट्रोजन को अगर किसी चीज से ‘पकड़’ लिया जाए, तो वह उड़ेगी भी नहीं और बहेगी भी नहीं। यह काम केंचुआ खाद में मौजूद करोड़ों ‘लाभदायक जीवाणु’ और जैविक कार्बन बखूबी कर सकते थे। बाजवा का यह तरीका बेहद सरल और असरदार है, जिसे कोई भी किसान आसानी से अपना सकता है।

क्या करना होगा

इसके लिए बस 1 किलो यूरिया को 4 से 5 लीटर केंचुआ खाद के गाढ़े घोल में अच्छी तरह मिलाकर 2 से 3 दिनों के लिए छांव में रख देना होता है। असली ‘चमत्कार’ इसी दौरान होता है, जब खाद में मौजूद करोड़ों सूक्ष्म जीवाणु यूरिया की नाइट्रोजन को सोखकर उसे अपने साथ ‘बांध’ लेते हैं। आसान शब्दों में समझें तो यह प्रक्रिया यूरिया पर एक ‘जैविक कोटिंग’ चढ़ा देती है, जिससे यूरिया हवा में उड़कर या पानी में बहकर बर्बाद नहीं होता, बल्कि एक ‘स्लो-रिलीज़’ खाद बनकर फसल को धीरे-धीरे और पूरा पोषण देता है।

आधी यूरिया में पूरा काम

जब बाजवा ने इस तैयार घोल को सिंचाई के पानी के साथ या स्प्रे करके अपनी फसलों अनाज, सब्ज़ियां और नकदी फसलों में इस्तेमाल किया, तो परिणाम चौकाने वाले थे। जहां पहले 100 किलो यूरिया लगता था, वहां अब इस ‘पॉवर-घोल’ के कारण 50 किलो यूरिया में ही काम हो गया। क्योंकि अब 90 फीसदी से ज़्यादा नाइट्रोजन सीधे पौधे को मिल रही थी, बर्बादी लगभग शून्य हो गई थी। यूरिया की खपत आधी होने से खेती की लागत में सीधी बचत हुई, जिससे मुनाफा बढ़ा। पौधों को नाइट्रोजन ‘अचानक’ मिलने की बजाय, ‘धीरे-धीरे’ और ‘लगातार’ चलती रही। इससे पौधे ज़्यादा स्वस्थ हुए, उनमें हरापन बढ़ा और पैदावार में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ। यह इस प्रयोग का सबसे बड़ा फायदा था। केमिकल यूरिया मिट्टी के जीवाणुओं को मारता है, लेकिन यह ‘जैविक-यूरिया’ का घोल मिट्टी में करोड़ों नए जीवाणुओं को ‘जन्म’ दे रहा था। मिट्टी फिर से ‘ज़िंदा’ होने लगी। वह नरम, भुरभुरी और उपजाऊ बनने लगी। केंचुओं की संख्या बढ़ने लगी।

कम होगी यूरिया की खपत बढेगा उत्पादन

एस। भूपिंदर सिंह बाजवा का यह साधारण सा दिखने वाला प्रयोग, असल में ‘एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन’ और ‘पर्यावरण-अनुकूल खेती’ का एक बेहतरीन उदाहरण है। यह प्रयोग सिर्फ बाज़पुर या उत्तराखंड तक सीमित नहीं है। भारत का कोई भी किसान, चाहे वह गेहूं-धान उगाता हो, सब्ज़ियां लगाता हो, या बागवानी करता हो, इस तकनीक को अपना सकता है। यह ‘कम लागत में बंपर उत्पादन’ का सच्चा मॉडल है। हालांकि इस तकनीक पर अभी और वैज्ञानिक परीक्षण जैसे कि मिट्टी पर इसके दीर्घकालिक प्रभाव, नाइट्रोजन उपयोग दक्षता पर सटीक आंकड़े, आदि की जरूरत है, लेकिन बाजवा के 35 साल के अनुभव ने जो रास्ता दिखाया है, वह भारतीय कृषि के लिए ‘मील का पत्थर’ साबित हो सकता है।

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